तारीख 6 अक्टूबर 1977 इमरजेंसी के बाद हुए हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजे आते हैं, एक 25 साल की युवा नेता जो चुनाव से साल भर पहले तक कॉलेज में थी वह पहली बार विधायक बनती हैं विधायकी के साथ-साथ उसे हरियाणा सरकार में कई और अहम मंत्रालय भी मिलते हैं, मगर यह सब कुछ प्रदेश के मुख्यमंत्री की सहमति के बगैर होता है। मुख्यमंत्री उस युवा नेता को इतनी कम उम्र में इस पद के लिए अयोग्य समझते थे वह उससे इतने ज्यादा बिफर चुके थे कि एक जनसभा में अपनी ही मंत्री की आलोचना करते हुए उन्हें ना सिर्फ अयोग्य करार दी बल्कि मंत्री पद से बर्खास्त करने की भी घोषणा कर दी इससे वह महिला नेता इतनी नाराज होती हैं कि पार्टी की सेंट्रल लीडरशिप से इसकी शिकायत करने दिल्ली पहुंच जाती हैं। वह कहती हैं कि इस अपमान से कहीं बेहतर होगा कि वह खुद ही इस्तीफा दे दें। इसके बाद पार्टी के टॉप लीडर मुख्यमंत्री को तलब कर उन्हें फटकार लगाते हैं, उनसे यह तक कह देते हैं कि अगर उन्होंने अपना यह फैसला वापस नहीं लिया तो वह अपनी मुख्यमंत्री की कुर्सी गवाने के लिए भी तैयार रहे साथ ही पार्टी से भी बाहर निकालने की धमकी दी जाती है।
मुख्यमंत्री एक बड़े जनाधार वाले नेता थे और मंत्री पहली बार 25 की उम्र में विधायक बनकर आई थी राजनीति में अक्सर बड़े चेहरों के लिए छोटों की बली चढ़ाई जाती है लेकिन यहां पर ऐसा होता नहीं दिख रहा था, मुख्यमंत्री को आखिरकार झुकना पड़ा।
यह मुख्यमंत्री थे चौधरी देवीलाल शीर्ष नेता थे पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर पार्टी थी जनता पार्टी और वह युवा नेता थी सुषमा स्वराज इस पोस्ट में बात होगी दिल्ली की एक्सीडेंटल सीएम रही भाजपा की दिग्गज नेता सुषमा स्वराज की।
कैसे एक टिपिकल नॉर्थ इंडियन फैमिली की लड़की काफी कम उम्र में भारतीय राजनीति का अहम चेहरा बन गई। एक नेता जिसके टिकट की पैरवी खुद जेपी ने की थी। एक ऐसी नेता जिसके मंत्री रहते हुए उसी की सरकार का मुख्यमंत्री उसका बाल तक बांका नहीं कर पाया। नेता जिसे दूसरों के कर्मों का फल एक बड़ी हार के रूप में भोगना पड़ा, ऐसी नेता जिसे विदेश में रह रहे भारतीय अपना संकट मोचन मानते थे साथ ही किस्सा बताएंगे अरुण जेटली और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उस साइलेंट राइवरीन बात 2013 में खुलकर सामने आई थी।
यह किस्सा है भाजपा की दिग्गज नेता सुषमा स्वराज का…
सुषमा स्वराज का जन्म 14 फरवरी 1952 को हरियाणा के अंबाला शहर में हुआ था। उनके माता-पिता हरिदेव शर्मा और लक्ष्मी देवी अविभाजित भारत के लाहौर से यहां आकर बसे थे। उनके पिता आरएसएस के सदस्य थे, सुषमा ने अपनी ग्रेजुएशन की पढ़ाई राजनीति शास्त्र और संस्कृत में सनातन धर्म कॉलेज अंबाला से की थी। सुषमा एनसीसी की एक केडिट भी थी।
उन्हें लगातार 3 साल तक बेस्ट केडिट का अवार्ड मिला था ग्रेजुएशन के बाद वह एलएलबी के लिए पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़ गई। हिंदी में अपने भाषणों के लिए लोकप्रिय सुषमा स्वराज को स्कूल कॉलेज के दिनों से ही बेस्ट स्पीकर का अवार्ड मिलता रहता था।
सुषमा स्वराज की राजनीति की शुरुआत भी इस देश के कई मौजूदा और दिवंगत नेताओं की तरह रही थी। इमरजेंसी और जेपी आंदोलन हालांकि अपने छात्र जीवन में इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ उन्होंने कई प्रदर्शन ऑर्गेनाइज करवाए थे, तब वह एबीवीपी यानी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की सदस्य हुआ करती थी। कॉलेज से निकलने के बाद 1973 में सुषमा स्वराज ने सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करनी शुरू कर दी। यहां उनकी मुलाकात स्वराज कौशल से हुई, जिनसे आगे चलकर उनकी शादी हुई। स्वराज कौशल जॉर्ज फर्नांडीस के काफी करीबी थे। सुषमा जॉर्ज फर्नांडीस की लीगल डिफेंस टीम की मेंबर बनी, इस तरह से वह वकालत और राजनीति दोनों के करीब रही इसी बीच इमरजेंसी के दौरान ही सुषमा और स्वराज ने शादी कर ली और इस तरह सुषमा हो गई सुषमा स्वराज इमरजेंसी के दौरान सुषमा जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व वाली संपूर्ण क्रांति में बहुत सक्रिय रूप से शामिल रही।
राजनीति में एक दूसरे के धुर विरोधी रहे लालू यादव और सुषमा स्वराज का इमरजेंसी से जुड़ा एक दिलचस्प किस्सा भी है। इमरजेंसी में एक दौर ऐसा आया। जब सुषमा स्वराज लालू यादव के लिए भी एक केस में अपीयर हुई, आगे चलकर भले ही दोनों की विचारधारा बिल्कुल अलग हो गई हो लेकिन व्यक्तिगत संबंध हमेशा अच्छे रहे यही कारण था कि लालू प्रसाद जब भी सुषमा स्वराज पर कुछ बोलना शुरू करते तो पहले ही माफी मांग लेते थे।
वहीं सुषमा स्वराज लालू यादव को रडार पर लेने में कोई कसर नहीं छोड़ती थी। एक बार तो उन्होंने एक शायरी सुनाकर यह भी कह दिया कि लालू यादव को मसखरी के अलावा कुछ नहीं आता इमरजेंसी के दौरान दौरान सुषमा कोर्ट कचहरी से लेकर सड़कों तक काफी सक्रिय रही।
यह आंदोलन उनको एक अलग पहचान दिला रहा था, जैसा कि उस दौर के सभी युवा नेताओं के साथ हो रहा था अब बारी थी सुषमा के देश की सबसे युवा मंत्री बनने की, इमरजेंसी के बाद 1977 में हरियाणा विधानसभा के चुनाव हुए, नतीजे आए तो पहली बार हरियाणा में कांग्रेस की बादशाहत खत्म हुई। उसी चुनाव में सुषमा स्वराज जनता पार्टी की टिकट से अंबाला के कंटोनमेंट सीट पर काफी बड़े अंतर से चुनाव जीत कर आई।
सुषमा ना सिर्फ 25 साल की उम्र में पहली बार विधायक बनी बल्कि चौधरी देवीलाल की कैबिनेट में उन्हें 2 साल के भीतर ही आठ मंत्रालयों का कार्यभार भी सौंपा गया। उन्हें सोशल वेलफेयर लेबर एंप्लॉयमेंट और कई मंत्रालयों की जिम्मेदारी मिली। सुषमा स्वराज भारत के राजनीतिक इतिहास की सबसे यंगेस्ट कैबिनेट मिनिस्टर रही हैं।
हरियाणा के मुख्यमंत्री देवीलाल उस वक्त सुषमा स्वराज को अपने मंत्रालय में शामिल ना करने पर अड़े हुए थे। उनका कहना था कि सुषमा काफी यंग है और फिलहाल उस ओहदे के योग्य नहीं है मगर चंद्रशेखर के कहने पर वह मान गए मगर सिर्फ 3 महीने के भीतर ही सुषमा स्वराज मधु लिमय के साथ चंद्रशेखर से मिलने पहुंची उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री देवीलाल उन्हें बर्खास्त करने की बात कर रहे हैं और इस शर्मिंदगी से बेहतर होगा कि मैं खुद ही इस्तीफा दे दूं।चंद्रशेखर ने उन्हें भरोसा दिलाया कि बिना सेंट्रल लीडरशिप से बात किए देवीलाल ऐसा फैसला नहीं ले सकते सुषमा के लौटने के बाद चंद्रशेखर को पता चलता है कि फरीदाबाद में किसी कार्यक्रम के दौरान देवीलाल ने अपने किसी मंत्री को बर्खास्त कर दिया है चंद्रशेखर ने उन्हें तुरंत कॉल लगाया तो पता चला कि वह मंत्री सुषमा ही है जिन्हें अयोग्य बताकर देवीलाल ने बर्खास्त करने की बात कह दी थी। चंद्रशेखर के काफी सलाह दिए जाने के बावजूद कि सुषमा को वापस से मंत्रालय के अंदर दिया जाए देवीलाल अपने फैसले पर अड़े रहे कि सुषमा अब वापस मंत्रालय में नहीं आ सकती चंद्रशेखर को हमेशा से मूल्यों का नेता माना जाता था।
विपक्ष भी उनका सम्मान करता था चंद्रशेखर ने सुषमा के लिए स्टैंड लेते हुए कहा कि अगर सुषमा वापस कैबिनेट में नहीं आ सकती तो देवीलाल भी मुख्यमंत्री नहीं रह पाएंगे।
चंद्रशेखर ने कहा कि पार्टी के अध्यक्ष होने के नाते वह देवीलाल की प्राथमिक सदस्यता को रद्द कर सकते हैं उन्हें 15 दिन का नोटिस दिया जाएगा और इस बीच नए मुख्यमंत्री को चुना जाएगा देवीलाल के लिए, यह काफी सरप्राइजिंग था उन्होंने इतनी सीधी बात की उम्मीद नहीं की थी घबराहट में उन्होंने चौधरी चरण सिंह से मुलाकात कर यह बात बताई चौधरी चरण सिंह ने चंद्रशेखर से पूछा कि क्या उन्होंने देवीलाल को पार्टी से निकालने की धमकी दी है। चंद्रशेखर ने वह पूरी घटना बताई। इसके बाद चौधरी चरण सिंह ने भी पार्टी का अनुशासन तोड़ने का आरोप लगाते हुए देवीलाल को निलंबित करवाने पर हामी भर दी। आखिर में चंद्रशेखर ने देवीलाल से कहा कि वह सुषमा को कैबिनेट में शामिल करें और उन्हें अपनी बेटी जैसा समझे। इसके बाद देवीलाल और सुषमा स्वराज के संबंध काफी अच्छे हो गए। आगे देवीलाल जब भी मुख्यमंत्री रहे, सुषमा उनके मंत्रालय में शामिल रही। इसकी एक बड़ी वजह भी थी क्योंकि सुषमा स्वराज को आंदोलन में लाने से लेकर टिकट दिलाने तक में जयप्रकाश नारायण यानी जेपी का सबसे बड़ा रोल रहा था। सुषमा स्वराज ने खुद भी कहा था कि उस मूवमेंट के बाद ना तो उनमें चुनाव लड़ने की कोई इच्छा थी और ना ही टिकट मिलने की कोई उम्मीद लेकिन जेपी ने खुद उनको रिकमेंड कर टिकट दिलाया और मंत्रालय भी दिलवाया 1979 में देवीलाल चौधरी की जगह भजनलाल बिश्नोई जनता पार्टी के मुख्यमंत्री बने इसके बाद सुषमा स्वराज जनता पार्टी के हरियाणा इकाई की प्रेसिडेंट बनी। 1980 में जब लोकसभा चुनाव हुए तो कांग्रेस फिर से सत्ता में आई और इंदिरा गांधी फिर से देश की प्रधानमंत्री बनी मगर केंद्र की सरकार बने बा मुश्किल एक महीना ही हुआ था कि हरियाणा के मुख्यमंत्री भजन लाल बिश्नोई ने अपने 35 विधायकों को साथ लेकर कांग्रेस से हाथ मिला लिया तब सुषमा स्वराज के साथ सिर्फ तीन विधायक ही बचे थे जो सरकार में शामिल नहीं हुए। यह विधायक थे शंकरलाल, स्वामी अग्निवेश और बलदेव तायल। 2003 के नोकॉन्फिडेंस मोशन के दौरान उस पुरानी बात पर नाराजगी जाहिर करते हुए लोकसभा में सुषमा कांग्रेस पर जमकर बरसी थी- “मैं कांग्रेस अध्यक्षा को कहना चाहूंगी कि जो आरोप आप हम पर लगा रही है,शायद आपको मालूम नहीं कांग्रेस को इस काम में महारत हासिल है।अध्यक्ष जी मैं पूर्वोत्तर की बात नहीं करती पूर्वोत्तर में तो यह खेल कांग्रेस ने हमेशा से खेला है। मैं उस राज्य की बात करती हूं जिस राज्य से मैं स्वयं आती हूं और आज की बात नहीं करती, आज से 20 साल पीछे ले जाना चाहती हूं। सन 1980 में केंद्र में भी जनता पार्टी की सरकार थी और मेरे गृह राज्य हरियाणा में भी जनता पार्टी की सरकार थी, अध्यक्ष महोदय मैं स्वयं उस समय हरियाणा विधानसभा की सदस्या थी, विधायिका थी, केंद्र में जनता पार्टी की सरकार गई, श्रीमती इंदिरा गांधी वापस सत्तासीन हुई उनके सत्ता में वापस लौटते ही एक महीने का समय नहीं बीता था कि हरियाणा की जनता पार्टी की सरकार जनता पार्टी का मुख्यमंत्री जनता पार्टी के मंत्री जनता पार्टी के विधायक रातो रात वहां के जनता पार्टी के मुख्यमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के चरणों में आकर बैठे थे। सरकार वही, मंत्री वही, मुख्यमंत्री वही, विधायक वही लेकिन नाम पट बदल गया और रात को जनता पार्टी की सरकार भी भजनलाल ने पार्टी पूरी तरह से तोड़ दी थी।”
अब सुषमा के सामने बड़ा सवाल यह था कि उनका राजनीतिक करियर किस दिशा की तरफ जाएगा इसका जवाब बनी भारतीय जनता पार्टी सुषमा स्वराज इस मामले में उसूलों की पक्की थी सरकार में बने रहने का विकल्प उनके पास हमेशा था लेकिन वह उन इंदिरा गांधी की पार्टी से हाथ नहीं मिलाना चाहती थी जिनकी खिलाफ करते हुए वह राजनीति में आगे बढ़ी जनता पार्टी के अलग-अलग फैक्शंस हो रहे थे। ऐसे में सुषमा को एक बड़ा मंच चाहिए था जिसके बाद 1984 में सुषमा स्वराज भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गई शामिल होते ही उन्हें पार्टी का सचिव बनाया गया 90 के दशक में भाजपा को मजबूत करने में उनकी अहम भूमिका रही है। इस बीच उन्हें मार्गदर्शन मिला लालकृष्ण आडवाणी का 1987 में जनता दल और भाजपा मिलकर हरियाणा विधानसभा चुनाव लड़ी। सुषमा एक बार फिर से अंबाला कैंटोनमेंट से चुनाव जीती, चौधरी देवीलाल फिर से मुख्यमंत्री बने। सुषमा स्वराज को 1987 से 90 के बीच सिविल सप्लाईज फूड और शिक्षा विभाग जैसे मंत्रालयों का पदभार सौंपा गया।
हरियाणा की राजनीति में तो सुषमा स्वराज का सिक्का चल ही रहा था लेकिन भाजपा को केंद्र में अब एक दमदार महिला नेता की जरूरत थी और यह नेता बनी सुषमा स्वराज 1990 में, सुषमा स्वराज की एंट्री राष्ट्रीय राजनीति में हो गई।केंद्र की राजनीति में उनकी एंट्री राज्यसभा भेजकर कराई गई वह तब तक राज्यसभा सदस्य बनी रही जब तक 1996 में साउथ दिल्ली लोकसभा क्षेत्र से सांसद नहीं बन गई। वह अटल बिहारी वाजपेई के 13 दिनों की सरकार में सूचना एवं प्रसारण मंत्री भी रही। 11 जून 1996 को सरकार में आते ही सुषमा स्वराज ने तब सबसे पहले कश्मीर से आर्टिकल 370 को हटाने की बात कही थी, सुषमा ने यह बात कहकर भारतीय जनता पार्टी का इरादा स्पष्ट कर दिया था कि अगर भविष्य में भाजपा और मजबूत होती है तो कश्मीर से धारा 370 को खत्म कर दिया जाएगा मगर बतौर सूचना एवं प्रसारण मंत्री उनका कार्यकाल लंबा नहीं चला, 1996 के लोकसभा चुनाव में भाजपा 161 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी थी। सबसे बड़ी पार्टी होने के कारण भाजपा को सरकार बनाने का न्योता भी मिला लेकिन जब फ्लोर टेस्ट हुआ तो अटल बिहारी वाजपेई बहुमत सिद्ध नहीं कर पाए। कांग्रेस ने इसके बाद सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद जनता पार्टी और क्षेत्रीय दलों को समर्थन देकर एक यूनाइटेड फ्रंट तैयार किया। इस फ्रंट के संयोजक बने चंद्रबाबू नायडू, इस फ्रंट के बनते ही भाजपा के हाथ आई सत्ता बस 13 दिनों के अंदर ही छिन गई।
इसके बाद देश ने अगले दो सालों में एचडी देवगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल के रूप में दो प्रधानमंत्री देखे। यह दोनों पीएम यूनाइटेड फ्रंट से थे। धारा 370 को हटाने का मुद्दा उठाने के चलते भाजपा को कम्युनल बताया गया जिसका सुषमा ने दमदार जवाब दिया – “हा हम सांप्रदायिक है, क्योंकि हम वंदे मातरम गाने की वकालत करते हैं… हम सांप्रदायिक है क्योंकि हम राष्ट्रीय ध्वज के सम्मान के लिए लड़ते हैं। हम सांप्रदायिक है क्योंकि हम धारा 370 को समाप्त करने की मांग करते हैं !”
खैर बहुमत परीक्षण में फेल होने के बाद सुषमा स्वराज ने जो भाषण दिया वह संसदीय इतिहास के सबसे यादगार भाषणों में गिना जाता है। अपने भाषण की शुरुआत करते हुए सुषमा ने अटल बिहारी वाजपेई की तुलना भगवान राम से कर दी थी – “यह पहली बार नहीं हुआ जबकि राज्य का सही अधिकारी अपने राज्य अधिकार से वंचित कर दिया गया। त्रेता में यही घटना राम के साथ घटी थी राज तिलक करते करते बनवास दे दिया गया। द्वापर में यही घटना धर्मराज युधिष्ठिर के साथ घटी थी जब धूत शंकुनी की दुष्ट चालो ने राज्य के अधिकारी को राज्य से बाहर कर दिया था। अध्यक्ष जी यदि एक मंथरा और एक शकुनी राम और युधिष्ठिर जैसे महापुरुषों को सत्ता से बाहर कर सकते हैं तो हमारे खिलाफ तो कितनी मंथरा और कितने शकुनी”
इसके बाद उन्होंने एक के बाद एक हर पार्टी को अपने निशाने पर लिया। इस चुनाव के बाद कई सारी पार्टियां धर्म निरपेक्षता के नाम
पर भाजपा के खिलाफ एकजुट हो रही थी जो अमूमन एक दूसरे की परस्पर विरोधी थी। सुषमा ने कहा था कि यह सारी पार्टियां अपने गुनाहों से बचने के लिए, एक दूसरे के साथ आई हैं। सुषमा ने जब ममता बनर्जी का नाम लिया तो पूरे सदन ने चुटकी ली। सुषमा स्वराज ने ममता बनर्जी को उन पुराने दिनों की याद करवाई जब वह व्हील चेयर पर बैठकर नरसिंहा राव की सरकार के खिलाफ वोट देने आई थी- “पूछना चाहती हूं ममता जी से आज कि इस सदन में सीपीएम के साथ बैठकर मतदान करेगी और पश्चिम बंगाल में जाकर उनके विरोध की राजनीति करेंगी। यह कैसी सांझ है, ममता जी यह कैसा गठबंधन”
सुषमा स्वराज सदन की उन नेताओं में से थी जिनका बोलना उस व्यक्ति को भी पसंद होता था जिनके खिलाफ वह बोल रही होती थी ऐसा नजारा तब देखा जब वह अपने पुराने राजनीतिक गुरु चंद्रशेखर पर भी निशाना साधने से नहीं चूकी विश्वास मत के दौरान मामला हिंदुत्व और धर्म निरपेक्षता से कहीं आगे चला गया था, मामला भारतीयता तक जा पहुंचा था जब डीएम के नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री मुरासु मारन ने कहा था कि वह बाकी भारतीयों से बहुत अलग है। अपने भाषण में सुषमा ने उस बयान का भी जिक्र करते हुए बड़े अदब से कहा था – “चर्चा सुनते सुनते मेरी आंखें दबदबा गई जब इस सदन में भारतीयता शब्द पर भी प्रश्न चिन्ह लगा। आज से पहले तो कहते थे इंडियन, इंडियन नेशनलिटी की बात कर सकते हो लेकिन इसी सदन में चर्चा के दौरान कहा गया। मैं तो बहुत कद्र करती हूं मुरासु मारन जी की लेकिन उन्होंने कहा वी आर डिफरेंट य आर डिफरेंट आप कौन सी संस्कृति की बात कर रहे हैं। भारत भारतीय भारतीयता क्या होती है। मुझे था शायद इनमें से कोई बोलेगा एक उम्मीद चंद्रशेखर जी से जरूर थी, पता नहीं क्यों कौरवों की सभा के भीष्म पितामह की तरह आप भी मन साधे रहे…”
चंद्रशेखर उनकी बातें सुनकर ना सिर्फ मुस्कुराए बल्कि सदन के अंदर लोगों से यह भी अपील की जब सुषमा जी बोल रही है उनकी बात को सुनना चाहिए और जिनको उत्तर देना हो, उनको उत्तर देना चाहिए। सुषमा एक तरफ जहां संगठन को मजबूत कर रही थी। वहीं अपने भाषणों से देश के लोगों के बीच चर्चित चेहरा भी बन रही थी।
सुषमा स्वराज का जब भी नाम लिया जाता है तो याद आता है उनका भाषण जिसकी काट विपक्ष में बैठे किसी भी नेता के पास नहीं होती थी साल 1996 लोकसभा चुनाव के बाद का तीसरा कॉन्फिडेंस मोशन इंद्र कुमार गुजराल जब प्रधानमंत्री बनते हैं तब सुषमा स्वराज उसी अवतार में नजर आती हैं। 1996 में अटल बिहारी वाजपेई की सरकार गिरने के बाद एचडी देवगौड़ा को यूनाइटेड फ्रंट की तरफ से प्रधानमंत्री बनाया जाता है लेकिन जिन दलों का उनको समर्थन मिला था उनकी अपनी अपेक्षाएं थी।
इसमें दो महत्त्वपूर्ण नाम शामिल थे लालू यादव और कांग्रेस के अध्यक्ष सीताराम केसरी चारा घोटाला मामले में सीबीआई लालू पर शिकंजा कसती जा रही थी क्योंकि यूनाइटेड फ्रंट में लालू भी थे तो देवगौड़ा से उनकी अपेक्षा थी कि वह सीबीआई पर नकेल कसें लेकिन देवगौड़ा ने इस मामले में हाथ खड़े कर दिए इसी तरह सीताराम केसरी से भी देवगौड़ा की अनबन चल रही थी।
राजनीतिक गलियारों में इस बात की चर्चा रही कि सरकार गिरने की एक वजह देवगौड़ा और सीताराम केसरी का ईगो क्लैश भी रहा जिसे सबसे बड़ी पार्टी के समर्थन से देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने थे उसी पार्टी के अध्यक्ष से वह मिलना भी मुनासिब नहीं समझते थे। वहीं सीताराम केसरी सरकार को हर तरह से डोमिनेट करना चाहते थे। इस ईगो क्लैश में देवगौड़ा ने सीताराम केसरी और कई कांग्रेस नेताओं पर सीबीआई की रेड करवा दी। इससे नाराज़ कांग्रेस और लालू यादव ने यूनाइटेड फ्रंट में देवगौड़ा को हटाने की मांग कर दी मगर प्रधानमंत्री जनता दल का ही होता, जनता दल की तरफ से अब इंद्र कुमार गुजराल को प्रधानमंत्री बनाया गया।
1997 के इस विश्वासमत के दौरान अपने भाषण में सुषमा स्वराज ने कांग्रेस की तुलना बेताल से कर दी – “अरे कांग्रेस का समर्थन तो बेताल की कथा की तरह होता है, बीच पर बेताल चढ़ता है।”
जब सुषमा स्वराज धीरे-धीरे अपना कद ऊंचा कर रही थी तो उन्हें एक बड़ी जिम्मेदारी दी गई। जिम्मेदारी सोनिया गांधी के खिलाफ लोकसभा में चुनाव लड़कर उन्हें हराने की व भी दक्षिण का एक राज्य कर्नाटक और सीट बेल्लारी यह चुनाव काफी दिलचस्प होने वाला था। एक तरफ सोनिया गांधी और दूसरी तरफ उनके सामने भाजपा की उभरती फायर ब्रैंड नेता हालांकि सोनिया गांधी उस चुनाव में अमेठी से भी लड़ रही थी लेकिन उन्हें अपनी सारी एनर्जी बेलारी सीट जीतने पर लगानी पड़ी इसलिए यह सबसे चर्चित और हॉट सीट तो होनी ही थी इस चुनाव का नैरेटिव पूरी तरह से “विदेशी बहू वर्सेस स्वदेशी बेटी” बना दिया गया। सुषमा स्वराज ने यह चुनाव बहुत ही मजबूती से लड़ा लेकिन सोनिया गांधी को हरा नहीं पाई सोनिया गांधी ने 56000 वोटों से यह चुनाव जीत लिया। भले ही सुषमा यह चुनाव हार गई लेकिन उनको मिले वोटों से पहली बार भाजपा ने दक्षिण के किसी राज्य में अपना स्कोप देखना शुरू किया। वहीं से भाजपा ने कर्नाटक में अपना बेस बनाना शुरू किया। भाजपा को कर्नाटक में स्थापित करने का बड़ा श्रेय सुषमा स्वराज को ही जाता है। चुनाव हारने के बाद भी सुषमा कभी वहां से डिस्कनेक्ट नहीं हुई। वह लगातार वहां जाती रही बेल्लारी के लोग उन्हें सुषमा ताई कहते थे।
2004 लोकसभा चुनाव के बाद फिर से सोनिया गांधी वर्सेस सुषमा स्वराज की बैटल देखने को मिली। कांग्रेस 145 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी। कांग्रेस के अंदर और समर्थन देने वाले घटक दलों के नेता भी कह रहे थे कि सोनिया गांधी को खुद प्रधानमंत्री बनना चाहिए लेकिन उनके लिए एक असहज स्थिति तब पैदा हो गई जब सुषमा स्वराज ने कहा कि अगर सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनती हैं तो वह अपने बाल मुंडवा कर सफेद वस्त्र धारण कर लेंगी और जमीन पर सोएगी सुषमा का कहना था कि इस देश में अगर कोई विदेशी मूल का व्यक्ति प्रधानमंत्री बनता है तो यह उन शहीदों का अपमान होगा। जिन्होंने देश के लिए जान दी खैर नतीजे के बाद सोनिया शाइन तो कर रही थी लेकिन कड़े विरोध के चलते उन्हें मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाना पड़ा। हाय मनमोहन सिंह डू स्वेर इन द नेम ऑफ गॉड दैट आई विल बेर फेथ एंड एलिजंस टू द कांस्टिट्यूशन ऑफ इंडिया एज बाय लॉ एस्टेब्लिश अब कहानी सुषमा स्वराज के एक्सीडेंटल चीफ मिनिस्टर बनने की।
मैं सुषमा स्वराज ईश्वर की शपथ लेती हूं, इसके लिए हमें वापस चलना होगा। साल 1998 में सुषमा स्वराज के राजनीतिक जीवन में एक ऐसी घटना घटी जिसकी कल्पना उन्होंने खुद भी नहीं की थी।सुषमा 1998 के लोकसभा चुनाव में साउथ दिल्ली से सांसद चुनकर आई थी। इस चुनाव में भाजपा 182 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। अपने घटक दलों के समर्थन से अटल बिहारी वाजपेई प्रधानमंत्री बने। इस सरकार में सुषमा स्वराज को सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनाया गया। इसी बीच भाजपा की टॉप लीडरशिप ने एक डूबती नैया को बचाने की जिम्मेदारी सुषमा स्वराज के कंधों पर डाली तब दिल्ली में भाजपा की सरकार थी और मुख्यमंत्री थे भाजपा के सीनियर लीडर साहिब सिंह वर्मा दो महीने बाद ही दिल्ली में विधानसभा चुनाव थे और प्याज के दाम आसमान छू रहे थे। भाजपा के राजनीतिक इतिहास में शायद पहली बार प्याज कोई चुनावी मुद्दा बना होगा खैर मुद्दा बनाने में योगदान खुद मुख्यमंत्री का ही था। एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा से एक पत्रकार ने प्यास
के बढ़ते दामों पर सवाल पूछा मुख्यमंत्री ने जवाब में कहा कि आम आदमी किसी भी हालत में प्याज नहीं खाता विपक्ष में बैठी कांग्रेस ने इसे चुनावी मुद्दा बना दिया।
लोग सड़कों पर उतरकर मुख्यमंत्री इस्तीफा दो के नारे लगाने लगे इसी बीच पूर्व मुख्यमंत्री मदनलाल खुराना को उम्मीद जगी कि पार्टी उनको फिर से इस कुर्सी पर बैठाएगी लेकिन साहिब सिंह वर्मा और मदनलाल खुराना कांग्रेस के उतने बड़े विरोधी नहीं थे जितना कि एक पार्टी में रहकर एक दूसरे के साहिब सिंह वर्मा इस बात पर अड़ गए कि वह तभी इस्तीफा देंगे जब मदनलाल खुराना को छोड़कर किसी और व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाया जाएगा। इसी बीच एक नाम तय हुआ और वह नाम था सुषमा स्वराज।
सुषमा स्वराज सदन में अपने भाषणों की वजह से अपना कद ऊंचा करती जा रही थी। हमेशा एक टिपिकल भारतीय नारी की वेशभूषा में ही रहती थी। इसलिए पार्टी ने तय किया कि विपक्ष में बैठकर कुर्सी पाने का इंतजार कर रही नेता प्रतिपक्ष शीला दीक्षित के खिलाफ सुषमा स्वराज को चुनाव से पहले ही मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित कर दिया जाए मगर सिंह वर्मा ने तब तक मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा नहीं दिया जब तक सुषमा स्वराज ने अपनी शपथ नहीं ले ली। मैं सुषमा स्वराज ईश्वर की शपथ लेती हूं।
बतौर दिल्ली की मुख्यमंत्री सुषमा स्वराज ने काफी कोशिश की कि वह पूरा चुनावी नैरेटिव बदल दे लेकिन इतने कम वक्त में वह संभव नहीं था। मुख्यमंत्री बनते ही उन्होंने प्याज की सप्लाई वापस पटरी पर लाने की कोशिश की जिसके लिए उन्होंने एक कमेटी भी बनाई।
घरों तक प्याज की सप्लाई के लिए उन्होंने प्यास से भरी वैंस भी जगह-जगह पर लगवाई।
सुषमा स्वराज ने दिल्ली में लॉ एंड ऑर्डर के प्रति भी अपनी सजगता दिखाई क्योंकि केंद्र में अपनी ही सरकार थी तो हर चीज पर तत्काल एक्शन भी दिख रहा था। सुषमा स्वराज देर रात सुरक्षा व्यवस्था की खबर लेने के लिए औचक निरीक्षण पर भी निकलती थी बतौर मुख्यमंत्री उनका एक निरीक्षण काफी चर्चित रहा था। जब वह देर रात बिना किसी सुरक्षा के अपनी निजी कार में बैठकर कल्याणपुरी पुलिस स्टेशन पहुंची।
वह लगभग 2 घंटे तक वहां इंतजार करती रही लेकिन उस थाने के एसएचओ वहां नहीं दिखे इसके बाद सुषमा ने आला अधिकारी से इसकी शिकायत की जिसके तुरंत बाद ही उस एसएचओ को तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दिया गया।
1998 में छपी पायनियर की एक रिपोर्ट के अनुसार सुषमा स्वराज ने तब गृह मंत्रालय को पत्र लिखकर ऐसे अधिकारियों पर कार्रवाई करने की मांग भी की थी। प्याज के दाम से लेकर सुरक्षा व्यवस्था तक हर चीज पर सक्रियता दिखा ने के बावजूद सुषमा के पास कोई बड़ा इंपैक्ट क्रिएट करने के लिए वक्त काफी कम था उस दौर में बिना सुरक्षा के उनका बाहर निकलना किसी खतरे से खाली नहीं था क्योंकि तब दिल्ली के नेताओं को धमकियां मिल रही थी और यह डर तब और ज्यादा बढ़ गया था जब नांगलोई सीट से समता पार्टी के एक उम्मीदवार वेद सिंह की हत्या कर दी गई खैर चुनाव हुए और जो एंटी इनकंबेंसी चुनावी माहौल में दिख रही थी वही नतीजों में भी देखने को मिली।
1993 में 49 सीटें जीतने वाली भाजपा इस चुनाव में 15 सीटों पर ही सिमट गई। केंद्र में सरकार होने के बावजूद भाजपा राज्य में अपनी सरकार नहीं बचा पाई लेकिन इस हार से सुषमा स्वराज के कद में कोई कमी नहीं आई चाहे बेल्लारी से सोनिया गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ना हो या एंटी इनकंबेंसी की हवा बदलना हर मुश्किल समय में सुषमा स्वराज को बड़ी जिम्मेदारी देना यह बताता है कि टॉप लीडरशिप को उन पर कितना भरोसा था।
विधान विधानसभा चुनाव के बस कुछ ही दिनों बाद अटल बिहारी वाजपेई की 13 महीने पुरानी सरकार सिर्फ एक वोट से गिर गई।
अटल बिहारी वाजपेई की सरकार में एक घटक दल था एआईए डीएमके इसकी मुखिया जयललिता ने अटल बिहारी वाजपेई पर दबाव बनाया कि भ्रष्टाचार के मामले में उनके खिलाफ हो रही कार्रवाई पर रोक लगाई जाए जब अटल इस पर सहमत नहीं हुए तो जयललिता ने अपना समर्थन वापस लेने का ऐलान कर दिया नो कॉन्फिडेंस मोशन के दौरान जब वोटिंग हुई तो अटल बिहारी वाजपेई की सरकार मात्र एक वोट से गिर गई लेकिन इसी विश्वास मत के दौरान सुषमा स्वराज भी वोट देने पहुंची जिसको लेकर काफी बड़ा विवाद हुआ क्योंकि विधानसभा चुनाव के दौरान सुषमा स्वराज ना सिर्फ मुख्यमंत्री का चेहरा थी बल्कि सांसद रहते हुए हौज खास सीट से लड़कर विधायक भी बनी थी अब मुश्किल समय में पार्टी को जरूरत थी उनके एक वोट की लेकिन विपक्षी नेताओं ने इस पर विवाद खड़ा कर दिया सुषमा स्वराज ने सदन के भीतर इस पर सफाई देते हुए कहा 5 दिसंबर को जब मैंने असेंबली से इस्तीफा दिया।
मैंने सभागृह में प्रवेश किया और उसके बाद यहां की प्रोसीडिंग्स में हिस्सा लेना शुरू किया। मुख्यमंत्री रहते हुए एक बार भी मैंने सदन की बैठक में भाग नहीं लिया। सरकार गिरने के बाद फ्रेश इलेक्शन का ऐलान किया गया तब तक अटल बिहारी वाजपेई कार्यवाहक प्रधानमंत्री रहे और सुषमा स्वराज कार्यवाहक सूचना एवं प्रसारण मंत्री।
1999 के लोकसभा चुनाव में भाजपा 182 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी और 13 दलों के समर्थन से फिर एक बार एनडीए की सरकार बनी और प्रधानमंत्री बने अटल बिहारी वाजपेई सुषमा ने बतौर सूचना एवं प्रसारण मंत्री अपना काम जारी रखा अटल बिहारी वाजपेई या फिर नरेंद्र मोदी की सरकार में भी सुषमा स्वराज विदेश मामलों में एक बड़ी ऐसेट साबित हुई आमतौर पर हमने देखा है कि विदेश मंत्रालय पर प्रधानमंत्री का हस्तक्षेप काफी ज्यादा रहता है लेकिन सुषमा स्वराज पहली ऐसी नेता थी जिन्होंने बतौर विदेश मंत्री 5 साल का कार्यकाल पूरा किया। अटल बिहारी वाजपेई की सरकार में विदेश मंत्रालय प्रधानमंत्री के ही पास था बावजूद इसके सुषमा स्वराज को कई सम्मेलनों और बायलट टॉक्स में भेजा जाता था।
साल 2002 में पाकिस्तान में सात देशों की एक बैठक हुई तब सुषमा स्वराज सूचना एवं प्रसारण मंत्री थी। सार्क साउथ इंडियन देशों का एक इंटरगवर्नमेंटल संगठन है जिसका काम इन देशों के सामाजिक आर्थिक तकनीकी और सांस्कृतिक विषयों पर फोकस करना है। इस सम्मेलन में शिरकत करने गई सुषमा स्वराज ने पाकिस्तान के एक पत्रकार तलत हुसैन को उस वक्त…पुरी जानकारी जल्द ही…!